वन उजाड़ता वन विभाग

 

इसे दुर्भाग्य के अलावा और क्या कहा जा सकता है कि जिसे वन संभालने का जिम्मा दिया गया था वही अपनी गलत नीतियों से वन को उजाड़ने में मददगार सिध्द हो रहा है।

आवश्यकता इस बात की है कि वन पर निर्भर समुदाय के साथ मिलकर वनों के संरक्षण और संवर्ध्दन का कार्य पूरे उत्साह से किया जाए। मध्यप्रदेश का सिवनी जिला पर्यावरण की दृष्टि से समृध्द जिला रहा है। परंतु वन विकास की गलत नीतियों के कारण वन विभाग द्वारा ही बड़ी मात्रा में वनों का विनाश कर दिया गया है। इस प्रक्रिया में विभिन्न किस्मों के मिश्रित वन क्षेत्र मिटाए गए हैं वहीं सागौन, यूकेलिप्ट्स, जेट्रोफा जैसे वृक्षों का रोपण कर दिया गया है। इससे न केवल वनों की जैवविविधता नष्ट हुई है अपितु स्थानीय वनवासियों की आजीविका का भी विनाश हुआ है। वनवासियों का कहना हैं, कि वन विकास निगम द्वारा भारी मात्रा में मिश्रित प्रजाति के जंगलों को नष्ट कर दिया गया है। यदि वन विकास निगम को वनों से भगाया नहीं गया तो बचे खुचे जंगल भी खत्म होंगे व जैवविविधता का भारी विनाश होगा एवं स्थानीय पर्यावरण पर भी इसके विपरीत परिणाम पड़ेंगे। वन लोगों की आजीविका के साधन रहे हैं परंतु वन विभाग की स्थापना के साथ ही स्थानीय आबादियों की आजीविका पर विपरीत प्रभाव पड़े हैं और जंगल के लोगों की गरीबी बढ़ी है। वन अधिकार अधिनियम 2006 के लागू होने के बावजूद अधिनियम लाने की पृष्ठभूमि व कानून की भावनाओं की ओर शासन व वन विभाग ने कभी ध्यान नहीं दिया केवल वन अधिकार अधिनियम की आड़ में राजनीतिक लाभ लेने का काम ही सत्ता के लोग करते आए हैं। अधिनियम के माध्यम से स्थानीय जनता को वनों के अधिकार देकर उन्हें वन संरक्षण व संवर्ध्दन में सयिता से जोड़ने के कोई भी ठोस प्रयास वन विभाग के द्वारा नहीं किये जा रहे हैं। न ही राय सरकार वनों के संरक्षण एवं संवर्ध्दन से पर्यावरण  सुधार के कोई कारगर उपाय कर पाई है। यह इस बात का प्रमाण है कि राय वनों को मात्र राजस्व प्राप्ति हेतु काटने व बेचने का ही काम करता आया है और अधिक वनों को काटकर इमारती लकड़ियों के उत्पादन में ही वन विभाग रुचि ले रहा है। वन संवर्ध्दन से स्थाई आजीविका के निर्माण में राय व वन विभाग की कोई रुचि नहीं है। वनों के संरक्षण व संवर्ध्दन के नाम पर लायी गई संयुक्त वन प्रबंधन योजना भी मात्र कागजों पर ही जीवित बची है। लोगों की सहभागिता प्राप्त करने में यह योजना पूर्णतया विफल ही कही जाएगी। वन अधिकार समितियां बनाकर वन प्रबंधन का कार्य स्थानीय लोगों को सौंपा जाना था। लेकिन वन विभाग इस कार्य को सिरदर्द मानकर करने की इच्छाशक्ति भी प्रदर्शित नहीं कर पाया है। वर्ष 2006 में बना वन अधिकार कानून भी सरकार और जनता के गले में फसी हड्डी साबित हो रहा है। वनों के मामले में जो हास्यास्पद स्थिति आज बनी हुई है वह सामूहिक भविष्य के सत्यानाश की ही सूचक है। एक ओर दुनियाभर में पर्यावरण संकट बढ़ता जा रहा है और दूसरी ओर तथाकथित विकास के नाम पर सरकारें आज भी प्राकृतिक संसाधनों का नाश करने में लगी हैं। जिस डाल पर मानव सभ्यता बैठी हुई है उसी को काटकर गिराया जाना ऐसी मूर्खता है जो इससे पहले इतिहास में कभी नहीं की गई है। आज जो विश्वव्यापी संकट है वह पर्यावरण के असंतुलन का है। दुनियाभर में इसकी चिंता व्याप्त है। पर्यावरण विनाश के परिणाम भी लोग आज भुगतने लगे हैं। तब भी सत्ता और शासन की धृतराष्ट्रीय भूमिका एक बड़े जनयुध्द की ही पृष्ठभूमि तैयार कर रही है। वन अधिकार के लिए कानून बनाने और उसके क्रियान्वयन करने हेतु सैकड़ों की संख्या में जन संगठनों ने सक्रिय संघर्ष किया। 
जब कानून बना तब सरकार ने भी अधिनियम के अंतर्गत स्वीकार किया कि आदिवासी क्षेत्रों में विगत 175 वर्षों में भारी अन्याय हुआ है और सरकार अधिनियम के माध्यम से न्याय दिलाने का काम करेगी। जब यह स्वीकार किया गया है कि आदिवासियों, वन क्षेत्रों के लोगों से ऐतिहासिक अन्याय हुआ है तो फिर कानून बनाने के बाद भी लाखों करोड़ों लोगों को न्याय तत्काल क्यों नहीं दिया जा रहा है? सवाल उठता है कि अंग्रेजी राज में हुए अन्याय आजाद भारत में भी दशकों तक क्यों जारी रहे? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब देने में हमारी तमाम राजनीतिक व्यवस्था नाकाम साबित हो रही है। जब हम पर्यावरण की बात करते हैं तो हम 33 फीसदी भूभाग पर वन एवं वन्यजीवों के सघनता की स्थापना को स्वीकार करते हैं। परंतु दूसरी ओर राय, देश की जैवविविधता को नष्ट करने का काम विकास के नाम पर करते ही जा रहे हैं। कृषि और वन क्षेत्र जैवविविधता के विशिष्ट खजाने रहे हैं। इन्हें विकास के नाम पर लूटना या बरबाद करने को आखिर विकास कहा ही कैसे जा सकता है? यह तो हमारी पीढ़ियों की धरोहरें हैं जो आने वाली पीढ़ियों तक के लिए सुरक्षित रहें इसके लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक व्यवस्था और सर्वसाधारण सभी की जिम्मेदारी है कि वे अपने देश-दुनिया के पर्यावरण, जीवन के आधार, मिट्टी पानी और हवा, पारम्परिक ज्ञान, बीज सम्पदा को सुरक्षित रखें। ऐसा कोई भी काम जो हमारी पर्यावरणीय व्यवस्था के लिए हानिकारक है, को विकास के नाम पर किया जाना दरअसल इस शताब्दी की सबसे बड़ी मूर्खता है। हमारे वन, पर्वत, नदियां आज अपना अस्तित्व खो रहे हैं और हमारे नीति नियंता इस विनाश के मूकदर्शक बनकर सर्वनाश के संवाहक की भूमिका लिए हुए है। प्रकृति के हत्यारे ही पूजा पाठ के ढोंग करते हर धार्मिक कृत्यों में प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। सिवनी जिले की बैनगंगा नदी जिसका नाम धर्मग्रंथों में वेणुगंगा वर्णित है, बांस के भिरों से उत्पन्न होने के कारण ही वेणुगंगा नाम से उल्लेखित की गई थी। बांस का विशाल वन क्षेत्र सिवनी जिले से प्रारंभ होकर बालाघाट जिले तक विद्यमान था जिसको पेपर मिलों का दैत्याकार पेट भरने के लिए काट-काटकर समाप्त किया जाना आज भी जारी है।
मध्यप्रदेश शासन बांस वर्ष मनाता रहता है। परंतु प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर का निरन्तर विनाश ही होता आ रहा है। जिले के बसोड़, बढ़ई व अन्य जाति के लोग दलित, आदिवासी जो वनों से अपनी आजीविका चलाते हजारों साल का इतिहास संजोए हुए वन पर निर्भर रहे आज गरीबी, भुखमरी, पलायन, वन राजस्व विभागों के अत्याचार, भ्रष्टाचार और लूट से बर्बाद हुए हैं। यह कैसा विकास है? किसका विकास हो रहा है और इससे पैदा हो रहा पर्यावरण असंतुलन अंतत: भुगत कौन रहा है?

 

 

 


Contact

Editor SHUBHAM JOSHI 91 79765 56860

Press & head Office –
‘SANTOSH VIHAR”
Chopasani village near resort marugarh
Jodhpur rajasthan

Phone no 0291-2760171




News

This section is empty.


Poll

क्या 'गहलोत' सरकार बचा लेंगे ?

हा
96%
2,108

नहीं
2%
49

मालूम नहीं
2%
40

Total votes: 2197


News

दिल्ली के माननीयों का नहीं बढ़ेगा वेतन

23/11/2010 11:41
 केंद्र ने दिल्ली सरकार के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है जिसमें विधायकों के मासिक वेतन में 200 फीसदी और मंत्रियों के वेतन में 300 फीसदी तक की बढ़ोत्त   विस्तृत >>

—————

All articles

—————


© 2011All rights reserved for Dwarkeshvyas